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एक स्वप्न
संसार मे एक ऐसा स्थान होना चाहिये जिसे कोई देश या राष्ट्र अपनी संपत्ति न कह सके, ऐसा स्थान जहां सब लोग पूरी स्वतंत्रता से विश्व नागरिक बनकर एकमात्र सत्ता-परम सत्य की आज्ञा का पालन करते हुए रह सकें; वह शांति, एकता और सामंजस्य का स्थान होगा जहां मनुष्य की सारी युद्ध-वृत्तियों का उपयोग दुःख और दर्द को जितने मे, अपनी कमज़ोरियों और अज्ञान पर प्रभुत्व प्राप्त करने मे, तथा अपनी सीमाओं और अशक्यताओं पर विजय प्राप्त करने मैं होगा; ऐसा स्थान जहां मामूली इच्छाओं और आवेगों की तृप्ति तथा भौतिक सुख और आमोद-प्रमोद की अपेक्षा आत्मा की आवश्यकताओं और प्रगति को अधिक महत्त्व दिया जायेगा । इस स्थान पर, बच्चे अपनी आत्मा के साथ संबंध खोये बिना समग्र रूप से बढ़ और विकसित हो सकेंगे; शिक्षा भी यहां परीक्षाएं मे उत्तीर्ण होने, प्रमाणपत्र प्राप्त करने अथवा ऊंचे पद पाने के लिये नहीं दी जायेगी, वह विभिन्न क्षमताओं को बढ़ाने और नयी क्षमताओं को प्रकट करने मे सहायता देगी । इस स्थान पर सेवा करने और संगठित करने के अवसर उपाधियों और पदो का स्थान ले लेंगे । प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताओं को समान रूप से पूरा किया जायेगा । सामान्य अवस्था में मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक श्रेष्ठता जीवन के सुखों व शक्तियों के बढ़ावे मे नहीं, बल्कि कर्तव्यों और जिम्मेदारियों की वृद्धि मे अभिव्यक्ति पायेगी । सभी लोगों को सभी प्रकार का कलात्मक सौंदर्य, चित्रकला, शिल्प, संगीत, साहित्य आदि समान रूप से प्राप्य होगा । इस कलात्मक सौंदर्य का आनंद प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक या आर्थिक परिस्थिति के बल पर नहीं, बल्कि अपनी आंतरिक क्षमताओं के अनुपात मे हीं प्राप्त कर सकेगा । क्योंकि इस आदर्श स्थान में धन सम्राट नहीं होगा; भौतिक संपत्ति तथा सामाजिक पद की अपेक्षा व्यक्तित्व का अधिक मूल्य होगा । यहां पर काम आजीविका के लिये नहीं, बल्कि अपने-आपको अभिव्यक्त करने और अपनी क्षमताओं तथा संभावनाओं को विकसित करने के लिये होगा, साथ हीं यह काम पूरे समुदाय के लिये भी होगा । दूसरी ओर, समुदाय हर एक के निर्वाह तथा कार्यक्षेत्र का प्रबंध करेगा । संक्षेप में, यह ऐसा स्थान होगा जहां मानव संबंध, जो प्रायः ऐकांतिक रूप से प्रतियोगिता और संघर्ष पर आधारित होते हैं, अधिक अच्छा करने की स्पर्धा तथा सहयोग में और भ्रातृ-भाव में बदल जायेंगे ।
निश्चय हीं पृथ्वी अभी ऐसे आदर्श को चरितार्थ करने के लिये तैयार नहीं है , क्योंकि अभीतक मानव के पास इसे समह्मने और स्वीकार करने के लिये आवश्यक ज्ञान नहीं है, न इसे कार्यान्वित करने के त्रिये अनिवार्य सचेतन शक्ति हीं हैं; इसीलिये मैं इसे स्वप्न कहती हूं !
फिर भी यह स्वप्न वास्तविकता बनने की तैयारी में है । हम श्रीअरविन्दाश्रम में
अपने मर्यादित साधनों के अनुसार एक छोटे पैमाने पर यही करने का प्रयास कर रहे हैं । उपलब्धि अभी पूर्णता से काफी कु है, फिर भी प्रगति हो रहीं है; धीरे-धीरे हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं । हम आशा करते हैं कि एक दिन वर्तमान दुर्व्यवस्था में से निकल कर अधिक सत्य और अधिक समस्वर नये जीवन में प्रवेश करने के लिये हम इसे संसार के सामने एक क्रियात्मक और प्रभावशाली साधन के रूप में रख सकेंगे।
('बुलेटिन', अगस्त १९५४)
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